इंदिरा एकादशी व्रत कथा
सतयुग के समय महिष्मति नाम की नगरी में इंद्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते हुए रहता था. वह राजा पुत्र, पौत्र और धन आदि से संपन्न और भगवान विष्णु का परम भक्त था. एक दिन जब राजा अपनी सभा में बैठा था तो आकाश मार्ग से महर्षि नारद उतरकर उसकी सभा में आए. राजा उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और उनका पूजन किया. उन्होंने देवर्षि नारद से उनके आने का कारण पूछा. तब नारद मुनि ने कहा कि- हे राजन! आप मेरे वचनों को ध्यान से सुनो. मैं एक समय ब्रह्मलोक से यमलोक को गया, वहां श्रद्धापूर्वक यमराज से पूजित होकर मैंने धर्मशील और सत्यवान धर्मराज की प्रशंसा की. उसी यमराज की सभा में महान ज्ञानी और धर्मात्मा तुम्हारे पिता को एकादशी का व्रत भंग होने के कारण देखा. उन्होंने संदेशा दिया वह मैं तुम्हें कहता हूं. उन्होंने कहा कि पूर्व जन्म में कोई विघ्न हो जाने के कारण मैं यमराज के निकट रह रहा हूं.
इसलिए हे पुत्र यदि तुम आश्विन कृष्ण इंदिरा एकादशी का व्रत मेरे निमित्त करो तो मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है. नारदजी की बात सुनकर राजा ने अपने बांधवों तथा दासों सहित व्रत किया, जिसके पुण्य प्रभाव से राजा के पिता गरुड़ पर चढ़कर विष्णुलोक को गए. राजा इंद्रसेन भी एकादशी के व्रत के प्रभाव से निष्कंटक राज्य करके अंत में अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर स्वर्गलोक को गए.
इंदिरा एकादशी व्रत पूजा विधि
पद्म पुराण के अनुसार एकादशी व्रत के नियमों का पालन दशमी तिथि से किया जाता है, जिसमें एक बार भोजन, ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है.
अगले दिन यानि एकादशी व्रत के दिन स्नानादि से पवित्र होकर व्रत संकल्प लेना चाहिए.
पितरों का आशीष लेने के लिए विधि-पूर्वक श्राद्ध कर ब्राह्मण को भोजन व दक्षिणा देना चाहिए.
पितरों को दिया गया अन्न-पिंड गाय को खिलाना चाहिए. फिर धूप, फूल, मिठाई, फल आदि से भगवान विष्णु का पूजन करने का विधान है.
उसके बाद अगले दिन यानि द्वादशी तिथि को पुन: पूजन कर ब्राह्मणों को भोजन करवाकर, परिवार के साथ मौन होकर भोजन करना चाहिए.